Saturday 17 May 2014

'' अब आओ ना ... ''


निस्तब्ध महानील में
उज्जवल नक्षत्र छटा
की दीप्ति जगमगाहट
मधुरालाप करती रही ,
अविकसित चन्द्र की
हिमांशु निःसृत
अनूप शीतल आभा में 
मैं तुम्हें दृगम्बुपूरित
नयनों से तकती रही ...
तुम्हारा हिरण्यवर्ण 
पद्माक्ष मोहकस्वरूप
सुलज्जित पलकावलियों
में निरंतर संजोये
स्नेह-स्वप्न में
निमग्न रही
ओ मेरे कनु ....
तुमसे मिलन की 
मेरी उद्दाम उत्कंठा
अर्णव की अकुलाई लहरों सी
युगों -युगों से है 
अन्यमनस्क निनाद में लीन  ...
आओ ना ..
अब आओ पद्मनाभ 
इस अपरिमित रोदनमय
संसृति मरुस्थल में
विदग्ध हो जल जाऊं
उस से पहले
हिमबिंदु स्निग्ध
सुकोमल अंक में
समासीन कर लो प्रिय ...
प्रेम प्रवाहिनी शीतल मंदाकिनी
में लीन कर लो प्रिय ...

© कंचन पाठक.
All rights reserved.
Published in Sanmarg Jharkhand (11 May 2014)

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