Saturday 17 May 2014

" कैसे हो तुम "

मालकोश का राग मधुर
या आतुर प्रश्न तुम्हारा
कैसे हो तुम पूछ रहा वो
  झिलमिल निमिष सितारा
महानील में लाखों तारे
कहता है इकतारा
टिम-टिम करता नीला तारा
 जान से मुझको प्यारा  !!

© कंचन पाठक.
All rights reserved.

'' अब आओ ना ... ''


निस्तब्ध महानील में
उज्जवल नक्षत्र छटा
की दीप्ति जगमगाहट
मधुरालाप करती रही ,
अविकसित चन्द्र की
हिमांशु निःसृत
अनूप शीतल आभा में 
मैं तुम्हें दृगम्बुपूरित
नयनों से तकती रही ...
तुम्हारा हिरण्यवर्ण 
पद्माक्ष मोहकस्वरूप
सुलज्जित पलकावलियों
में निरंतर संजोये
स्नेह-स्वप्न में
निमग्न रही
ओ मेरे कनु ....
तुमसे मिलन की 
मेरी उद्दाम उत्कंठा
अर्णव की अकुलाई लहरों सी
युगों -युगों से है 
अन्यमनस्क निनाद में लीन  ...
आओ ना ..
अब आओ पद्मनाभ 
इस अपरिमित रोदनमय
संसृति मरुस्थल में
विदग्ध हो जल जाऊं
उस से पहले
हिमबिंदु स्निग्ध
सुकोमल अंक में
समासीन कर लो प्रिय ...
प्रेम प्रवाहिनी शीतल मंदाकिनी
में लीन कर लो प्रिय ...

© कंचन पाठक.
All rights reserved.
Published in Sanmarg Jharkhand (11 May 2014)

" याद सदा तुम रखना "


  ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
 तेरा यहाँ न निज कुछ अपना,
ऐ ! मानवता के छुपे शिकारी
  यह याद सदा तुम रखना |
कर्मों का बड़ा गणित है पक्का
     जो जस करे सो पाए,
   बोये पेड़ बबूल जो जिसने
     आम कहाँ से खाए |

कर नैतिक जीवन का मूल्यांकन
     जोड़ घटा जो आए,
गिन धर पग तब जीवन पथ पर
  अमी हर्ष निधि तुम पाए |

पोत ना कालिख स्वयं के मुख पर
   मन दर्पण उज्जवल रखना ,
     ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
  तेरा यहाँ न निज कुछ अपना ||
  क्यूँ कार्य - कलापों से अपने
   मानवता को लज्जित करते,
   पल-पल बढ़ती सुरसा मुख-सी
 धिक् अघ की न वदन पकड़ते |

   क्यूँ निज समाज और देश के
   आँचल पर हो दाग लगाते,
 अरे क्या ले जाओगे अपने संग
     जग से जाते - जाते |

    बैठ कभी चित्त शांत बना
    मन शीशे में मुख तकना ,
    ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
  तेरा यहाँ न निज कुछ अपना ||

© कंचन पाठक.
All rights reserved.
Published in Sanmarg Jharkhand (11 May 2014)