Monday 8 December 2014

" सिद्ध तारापीठ "



दीपावली की अर्धरात्रि को हमारे देश में अमोघ शक्ति की जगद्धात्री देवी महाकालिका की पूजा का प्रावधान है, इसे काली पूजा कहते हैं । कार्तिक अमावस्या की मध्यरात्रि ... जब अंधकार की कालिमा अपने चरम पर होती है उस वक़्त तंत्र की साधना अत्यंत प्रशस्त् मानी जाती है । घोर अंधकार यानी काला रंग जो न केवल वैराग्य का प्रतीक है बल्कि सबसे बड़ी बात है कि काले रंग पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता । यह अंधकार से प्रकाश की ओर भी ले जाता है । तंत्र विद्या कोई निंदनीय विद्या नहीं अपितु यह परमात्मा की आराधना का हीं मार्ग है, जिससे महानिर्वाण की प्राप्ति होती है । आवश्यकता है इसके सही अर्थ को समझने की । वास्तविक साधना चाहे वो तंत्र की हो या मंत्र की मनुष्य को उठाती है, गिराती नहीं ।
जिस प्रकार वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के श्रीमुख से हुई उसी प्रकार तंत्र की उत्पत्ति भगवान रूद्र अर्थात शिव के मुख से हुई । तंत्र की दस महाविद्याओं का प्राकट्य आद्याशक्ति शिवा के अंगों से हुआ । पौराणिक मान्यतानुसार माना जाता है कि सती के शरीर के टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे
, वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। माना जाता है कि तारापीठ वह स्थान है, जहाँ सती के तीसरे नेत्र का निपात हुआ था । अत्यंत शक्तिशाली सिद्ध तंत्रस्थलियों में से एक अति महत्वपूर्ण तंत्रस्थली है "सिद्ध तारापीठ" ... पश्चिम बंगाल में कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर वीरभूम ज़िले में स्थित 51 शक्तिपीठों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध धार्मिक तांत्रिक स्थल । इस स्थान को "नयन तारा" भी कहा जाता है । चारों ओर से द्वारिका नदी से घिरा यह सिद्ध शक्तिपीठ श्मशान के भीतर हीं अवस्थित है । इस श्मशानभूमि को 'महाश्मशान घाट' के नाम से जाना जाता है, इस महाश्मशान घाट में जलने वाली चिता की अग्नि कभी बुझती नहीं है । मान्यता है कि इस महाश्मशान में जिस दिन शव नहीं जलते उस दिन माता तारा को भोग नहीं लगता और न हीं तंत्रसाधक कुछ खाते-पीते हैं ।
तारापीठ - कलियुग में वामाखेपा की साधना स्थली बनी । तारा - अर्थात तारने वाली । इन्हीं माँ तारा के परम भक्त थे वामाखेपा
, जिनकी प्रबल तंत्र साधना से यह स्थल सिद्ध तंत्र पीठ के रूप में विश्वविख्यात हुआ ।
वामा एक गरीब ब्राह्मण के पुत्र थे । लोककथानुसार वह एक सिद्ध आत्मा थे
, जिन्होंने अपने पिछले जन्म की सिद्धि को पूर्ण करने के लिए माँ तारा की धरती पर जन्म लिया था । बचपन से हीं वामा कभी पेड़ पर बैठे-बैठे तो कभी गायों को चराते भावसमाधि में लीन हो जाते थे तो कभी स्वतः संभाषण में माँ तारा - माँ तारा करते थे । इसलिए लोग उन्हें खेपा (पागल) कहने लगे । एक रात वामा अत्यंत व्यग्रता से आँगन में चक्कर काट रहे थे । सारा संसार सोया हुआ था । माँ से पुत्र की दशा देखी नहीं जा रही थी । बेटे को सोने को कहा तो वामा ने माँ के चरणों में बैठ आशीर्वाद माँगा और संन्यास की अनुमति ले घर से निकल पड़े । उसके बाद वामा घर नहीं लौटे श्मशानभूमि में रहकर माँ तारा की साधना करते रहे ।
कहते हैं वामा माँ तारा से सीधे-सीधे बात किया करते थे
, अपने हाथों से भोग बनाकर तारा को खिलाते थे । वामाखेपा के मुख से जब भी जो भी निकला वह अक्षरशः सत्य साबित हुआ । आज भी कहते हैं कि तारापीठ आने वाले श्रद्धालुओं की मुरादें अवश्य पूरी होती हैं । तारापीठ में बाबा वामाखेपा के चमत्कारों की सैंकड़ों हज़ारों कहानियाँ विख्यात है ।
वामा पूर्णतः निरक्षर थे । पुस्तकों का कोई ज्ञान नहीं था ... निरे अँगूठाछाप किन्तु तंत्रसिद्धि प्राप्त कर उन्होंने आध्यात्म की असाधारण ऊँचाइयों को छुआ । कहते हैं कि जब वह बोलने लगते तो ज्ञान की ऐसी-ऐसी गूढ़ बातें उनके मुख से निकलती थीं कि लोग चकित हो जाते । बड़े से बड़ा विद्वान उनके समक्ष मुँह नहीं खोल पाता । वामा अपनी सगी गर्भधारिणी माँ को छोटी माँ कहते थे एवं माँ तारा को बड़ी माँ कहते थे । मृत्यूपूर्व वामा ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि उन्हें उनके गुरु के बगल में समाधि दी जाए ।
कार्तिक अमावस्या की तिमिर रात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि एवं भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को इस सिद्धपीठ में दूर-दूर से तंत्रसाधक साधना के लिए एकत्रित होते हैं । उस समय यहाँ का वातावरण अत्यंत रहस्यमय एवं भीतीपूर्ण होता है । थोड़ी-थोड़ी दूरी पर तांत्रिकों की फूस की छोटी-छोटी कुटिया जिसके अन्दर सिन्दूर से पुती हुई मानव खोपड़ी एवं हड्डियाँ ... पूरी-पूरी रात तांत्रिक साधना में लीन रहते हैं ... दिगम्बर रूप में श्‍मशान साधना
, शिव साधना, एवं शव साधना करते हैं । कहते हैं शव साधना के चरम पर मुर्दा बोल उठता है और साधक की सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण करता है । इस साधना में सामान्य जनों का प्रवेश वर्जित रहता है ।
आज के युग में जब मानव मंगल पर जा पहुँचा है और चाँद पर बस्ती बसाने की बातें सोच रहा है तब इस तरह की चीज़ें विस्मयकारी एवं अविश्वसनीय भले हीं लगे किन्तु यह सत्य है ।
जी हाँ अभी भी समाज में ऐसा एक समुदाय
, एक वर्ग मौजूद है जो सृष्टि के रहस्य को जानने के लिए अनेक सिद्धियाँ कर रहा है एवं अपना सम्पूर्ण जीवन तंत्रसिद्धि साधना के लिए समर्पित कर देता है ।
( तारापीठ यात्रा के दौरान तांत्रिकों से बातचीत एवं संस्मरण पर आधारित )

  - कंचन पाठक.