Thursday 20 March 2014

" ये परिंदे "


उस सामने वाले रौशनदान में...
परिंदों का एक जोड़ा
अल्लसुबह से
अपना आशियाना बनाने की
जुगत में है
घास-फूस , खर-पतवार
चोंच में उठा-उठा कर
घरौंदे की रूप-रेखा
तैयार की जा रही है
पिछले साल भी यही हुआ था
दबे पांव
सीढ़ियों के किनारे से
ग्रिल तक जा कर
देख आई थी मैं
तीन अंडे थे
प्यारे-प्यारे से
गौरैया उनके ऊपर बैठी रहती
और गोल-गोल आँखों से
वो मुझे और मैं उसे
ताकते रहते
रोज़ सुबह
मैं चावल के दाने
उसके घोंसले के पास
बिखेर आती ,और,
गौरैया थोड़ी-हीं देर में
फुदक-फुदक कर, चुग-चुगकर
उन्हें साफ़ कर देती
अंडे बड़े होने लगे थे
एक दिन खुद को रोक ना पाई
एक अंडा उठा कर
अपनी हथेली पर रखकर
प्यार से सहलाया
आह ! कितने चिकने ...
और फिर
वापस घोंसले में रख दिया
दुसरे दिन......
सुबह-सुबह
चावल ले कर
ज्यूँ हीं बाहर आई
तो देखती क्या हूँ..
सामने...
नरम-नरम, पीला-सा
सफेद-सा , लसलसा-सा
बिखरा पड़ा है
उफ़ उफ़ उफ़.................
हम इंसान क्या इतने गंदे होते हैं
कि परिंदे
अपनी आने वाली नस्लों पर
हमारी छुअन तक बर्दाश्त नहीं कर पाते
अपने ही अंडे को
नीचे गिरा कर
फोड़ दिया था
उसने...........
© कंचन पाठक.
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Saturday 15 March 2014

" रंग है मन पर "


रंग है तन पर  
रंग है मन पर 
आज हर एक
ह्रदय में उत्साह है !
फगुनाई हर ओर
चढ़ी है जम कर
मस्ती का स्वच्छंद
मुक्त प्रवाह है !
बाँध लो कान्हा
नेह भरे आलिंगन में
बहके मन की
बहकी सी यह चाह है !
मद्धम मद्धम सी
तन मन में दहक रही
मीठी - मीठी सी
कैसी....ये दाह है !
श्याम रंग में लीन हो
सब जग बिसरा दूँ 
तुम्हें समर्पित अब
ये जीवन राह है... !!
© कंचन पाठक.
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" हवा बसंती बौराई "

गुन-गुन गुंजित भ्रमर गीत सुन
कली  सुंदरी मुस्काई ,
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!


दश दिश झूमे नव-नव पल्लव
कूक कोयलिया विहगन कलरव
हरित ओष्ठ पादप लख शुक दल
पखियन पसार पीहू अकुलाई !
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!


मंजरियाँ मधु - शीश उठाए
अजब सुवास मदिर बिखराए
महुआ गंध पगी पुरवैया
चले बहकी-बहकी मदमायी
फागुन के आने की सुनकर ,
हवा बसन्ती बौराई !!


मन मतवाला बहका जाए
तन फूलों संग महका जाए
लगा लुटाने प्रखर रंग रवि
उषा सुंदरी शरमाई !
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!

© कंचन पाठक.
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Published in Amar Ujala Yuvaan (15 March 2014)